वायुमंडल की संरचना (Structure of Atmosphere) – आधुनिक जानकारी के आधार पर प्रभावी वायुमण्डल की ऊँचाई का 16 से 29 हजार किलोमीटर तक अध्ययन किया गया है परन्तु सागर तल से 800 किलोमीटर ऊँचाई तक का वायुमण्डल सर्वाधिक महत्वपूर्ण होता है। गैसों के सान्द्रण, सकल वायुमण्डलीय द्रव्यमान (mass), वायुदाब तथा मौसम की घटनाओं की दृष्टि से वायुमण्डल का लगभग 50 प्रतिशत भाग 5.6 किलोमीटर तथा 97 प्रतिशत भाग 29 किलोमीटर की ऊँचाई तक ही है। पृथ्वी के वायुमण्डल की रचना कई सकेन्द्रीय परतों या मण्डलों से हुई है। वायुमंडल की संरचना हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण है.
क्षोभमण्डल (troposphere)
सागर ताल से – 18 km की वायुमण्डल सबसे निचली परत को परिवर्तन मण्डल या क्षोभमण्डल कहा जाता है। इस परत का ‘ट्रोपोस्फीयर’ भी कहते है।’ट्रोपोज’ ग्रीक भाषा का शब्द है जिसका अर्थ ‘मिश्रण’ (mixing) या ‘विक्षोभ’ (turbulence) होता है। इसी कारण से इस परत या मण्डल को विक्षोभ मण्डल (turbulent zone) भी कहा जाता है। इस परत को विक्षोभ एवं भंवर (eddies) के प्रभुत्व के कारण संवहनीय परत भी कहा जाता है। मौसम एवं जलवायु की दृष्टि से क्षोभमण्डल सर्वाधिक महत्वपूर्ण होता है क्योंकि मौसम सम्बन्धी सभी घटनायें ( वाष्पीकरण, संघनन एवं विभिन्न रूपों में वर्षण-कुहरा, बादल, ओस, पाला, हिम वर्षा, ओलावृष्टि, जलवर्षा, बादलों की गरज, बिजली की चमक, तड़ितझंझा, वायुमण्डलीय तूफान-चक्रवात, हरिकेन, टारनैडो, टाइफून आदि) इसी मण्डल में घटित होती हैं।
इस मण्डल में वायुमण्डल (वायुमंडल की संरचना) के समस्त गैसीय द्रव्यमान (mass) का 75 प्रतिशत केन्द्रित है। इसके अलावा अधिकांश जलवाष्प, एयरोसॉल तथा प्रदूषक (pollutants) भी इसी मण्डल में पाये जाते हैं। जीवधारियों की दृष्टि से भी क्षोभमण्डल सर्वाधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि मानव सहित सभी जीवित जीवों का अस्तित्व क्षोभमण्डल में होने वाली मौसमी घटनाओं के कारण ही सम्भव हो पाया है। इस मण्डल को परिवर्तन मण्डल इसलिए कहा जाता है कि इसमें ऊँचाई के साथ तापमान, जलवाष्प, एयरोसॉल एवं गैसों के अनुपात में परिवर्तन होता जाता है।
क्षोभमण्डल की सर्वाधिक महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि इसमें बढ़ती ऊँचाई के साथ में प्रति 1000 मीटर पर 6.5° सें० की दर से तापमान में घटता है। तापमान की गिरावट की इस दर को तापमान का सामान्य पतन दर (normal lapse rate) कहते हैं ऊँचाई के साथ तापमान में यह कमी ऊँचाई के साथ वायुमण्डलीय गैसों के घनत्व, वायुदाब एवं कणिकीय पदार्थों (particulate matter) में कमी के कारण होती है।
संवहन एवं विकिरण विधियों से स्थानान्तरण से गर्म होता है। निचले क्षोभमण्डल में तापीय प्रतिलोमन (inver- sion of temperature) की भी घटना होती है जिसके अन्तर्गत कुछ परिस्थितियों एवं दशाओं में ऊँचाई के साथ तापमान में वृद्धि होती है अर्थात् अपेक्षाकृत ठंडी हवा के ऊपर गर्म हवा होती है।
भूमध्य रेखा से ध्रुवों की ओर क्षोभमण्डल की ऊँचाई घटती जाती है। ग्रीष्मकाल में क्षोभमण्डल की ऊँचाई बढ़ जाती है जबकि शीतकाल में घट जाती है। भूमध्यरेखा तथा ध्रुवों पर क्षोभमण्डल की औसत ऊँचाई क्रमशः 16 किलोमीटर एवं 6 किलोमीटर है।
ट्रोपोपाज – क्षोभमण्डल की ऊपरी सीमा को ट्रोपोपाज कहते हैं वास्तव में ट्रोपोपाज रैखिक न होकर मण्डलीय (zonal) होता है। इसकी औसत मोटाई 1.5 किलोमीटर है। इस की विशेषता (1) ऊँचाई के साथ तापमान की गिरावट इस सीमा पर आने पर समाप्त हो जाती है अतः सह शीत बिन्दु (cold point) को दर्शाता है, (2) ट्रोपोपार्ज पर विक्षोभ मिश्रण (turbulent mixing) समाप्त हो जाता है, तथा (3) यह अधिकांश वायुमण्डलीय जलवाष्प के सान्द्रण (concentration) की ऊपरी सीमा निर्धारित करता है। ट्रोपोपाज की ऊँचाई में भी स्थानिक (भूमध्य रेखा से ध्रुवों की ओर ऊँचाई कम होती जाती है) तथा कालिक परिवर्तन होता है।
ट्रोपोपाज की भूमध्य रेखा एवं ध्रुवों पर ऊँचाई क्रमशः 17 किमी० एवं 9 से 10 किमी० होती है। इसकी ऊँचाई में मौसमी परिवर्तन भी होता है। भूमध्य रेखा पर इसकी जनवरी एवं जुलाई में ऊँचाई 17 किमी० रहती है तथा तापमान 70° सें० होता है। ट्रोपोपाज की 45° उ० अक्षांश पर ऊँचाई जुलाई में 15 किमी० (तापमान-60° सें०) तथा जनवरी में 12.5 किमी० (तापमान – 58° सें०) रहती है। ध्रुवों पर ऊँचाई जुलाई में 10 किमी० (तापमान -45° सें०) तथा जनवरी में 9 किमी० (तापमान – 58° सें०) होती है।
भूमध्य रेखा पर ट्रोपोपाज पर तापमान न्यूनतम (-70° सें०) है (अधिक ऊँचाई के कारण) परन्तु ध्रुवों पर अपेक्षाकृत अधिक है। चूँकि ऊँचाई के साथ प्रति 1000 मीटर पर 6.5° सें० तापमान कम होता जाता है अतः यह स्वाभाविक है कि भूमध्य रेखा के ऊपर ट्रोपोपाज की 17 किमी० की ऊँचाई पर तापमान ध्रुवों के ऊपर ट्रोपोपाज पर तापमान की अपेक्षा अधिक कम हो। वास्तव में ट्रोपोस्फीयर का शाब्दिक अर्थ होता है ‘मिश्रण का मण्डल या प्रदेश’ (zone or region of mixing) जबकि ट्रोपोपाज का अर्थ होता है ‘जहाँ मिश्रण रुक जाता है’
समतापमण्डल (Stratosphere) ( 18-50 km)
ट्रोपोपाज के ऊपर वाली परत को समतापमण्डल कहा जाता है। इस मण्डल की खोज तथा अध्ययन सर्वप्रथम टीजरेन्स डी बोर्ट द्वारा 1902 में किया गया। औसत रूप में समताप मण्डल की ऊँचाई 50 किमी० मानी गयी है। ऊँचाई के साथ तापमान में वृद्धि होती है तथा यह 50 किमी० की ऊँचाई, जो इस मण्डल की ऊपरी सीमा है, पर तापमान 0°C 0. हो जाता है। समतापमण्डल की ऊपरी सीमा को स्ट्रैटोपाज कहते हैं। तापमान में वृद्धि इस मण्डल में मौजूद ओजोन गैस द्वारा सौर्यिक पराबैंगनी विकिरण तरंगों के अवशोषण एवं कम घनत्व वाली विरल हवा के कारण होती है। स्थिर दशा, शुष्क पवन, मन्द पवन संचार, बादलों का प्रायः अभाव, ओजोन के सान्द्रण आदि के कारण इस मण्डल में मौसम की घटनायें कम ही घटित होती हैं।
कभी-कभी निचले समतापमण्डल में सिरस बादल, जिन्हें ‘मदर ऑफ पर्ल क्लाउड’ कहते हैं दिखाई पड़ जाते हैं। निचला समतापमण्डल जीवमण्डलीय पारिस्थितिक तंत्र के जीवों के लिए अधिक महत्वपूर्ण होता है क्योंकि इसी में जीवन रक्षक ओजोन गैस (O 3) का 15-35 किमी० के मध्य सर्वाधिक सान्द्रण होता है। ओजोन का सर्वाधिक सान्द्रण 22 किमी० की ऊँचाई पर होता है, अत्यधिक ओजोन वाली निचली परत को ओजोनमण्डल कहते हैं जो 15 से 35 किमी० तक विस्तृत है, यद्यपि ओजोन मण्डल की ऊपरी सीमा 55 किमी० निश्चित की गयी है। अण्टार्कटिका से लेकर आस्ट्रेलिया तक के भाग के ऊपर ओजोन छिद्र (ozone hole) का निर्माण हो गया है (यद्यपि 2004-05 में इसमें काफी कमी हुई है, ओजोन के सान्द्रण में वृद्धि हुई है तथा ओजोन छिद्र का भराव हुआ है। परन्तु आर्कटिक क्षेत्र के ऊपर नवम्बर, 2004 से 31 मार्च, 2005 तक ओजोन परत में 60 प्रतिशत से अधिक क्षरण हुआ)।
मध्यमण्डल (Mesosphere) 50-80 km
मध्य मण्डल का विस्तार सागर तल से 50 से 80 किलोमीटर की ऊँचाई तक पाया जाता है। इस मण्डल में ऊँचाई के साथ तापमान में पुनः गिरावट होने लगती है। स्ट्रैटोपाज पर तापमान की वृद्धि समाप्त हो जाती है। इसके ऊपर तापमान घटने लगता है। मध्य मण्डल की ऊपरी सीमा अर्थात् 80 किलोमीटर की ऊँचाई पर तापमान-80° सें० हो जाता है तथा यह 100° से 133° सें० तक हो सकता है। मध्य मण्डल की इस ऊपरी सीमा को मेसोपाज (meso- pause) कहते हैं। इस सीमा के ऊपर जाने पर तापमान बढने लगता है। वास्तव में 80 किमी० की ऊँचाई के बाद मेसोपाज तापीय प्रतिलोमन (inversion of temperature) को इंगित करता है क्योंकि इसके नीचे कम तापमान रहता है परन्तु इसके ऊपर अधिक तापमान रहता है।
तापमण्डल (Thermosphere)
मध्यमण्डल (mesosphere) से ऊपर स्थित वायुमण्डल के भाग को तापमण्डल कहते हैं जिसमें बढती ऊँचाई के साथ तापमान तीव्र गति से बढ़ता है परन्तु अत्यन्त कम वायुमण्डलीय घनत्व के कारण वायुदाब न्यूनतम होता है। यह अनुमान किया गया है कि तापमण्डल की ऊपरी सीमा, जो अब तक निश्चित नहीं की जा सकी है, पर तापमान 1700° सें० रहता है। ज्ञातव्य है कि इस उच्च तापमान का साधारण थर्मामीटर से मापन (measurement) नहीं किया जा सकता क्योंकि यहाँ पर वायुमण्डलीय गैसें अत्यन्त न्यून घनत्व के कारण बहुत अधिक हल्की हो जाती हैं।इनकी विशिष्टताओं में विभिन्नताओं के आधार पर मध्यमण्डल को दो उपमण्डलों में विभाजित किया जाता है वायुमंडल की संरचना में (1) आयनमण्डल, तथा (2) आयतनमण्डल
(1) आयन मण्डल (ionosphere): आयन मण्डल का वायुमण्डल में सागर तल से 80 से 640 किमी० के बीच विस्तार पाया जाता है।आयनमंडल (Ionosphere): मध्यमंडल के ऊपर वायुमंडल का चौथा संस्तर, जिसे ‘आयनमंडल’ कहते हैं, 80 से 600 किमी की ऊँचाई के मध्य स्थित है। इस परत को ‘थर्मोस्फीयर’ (Thermosphere) भी कहते हैं। इस परत में ऊँचाई के साथ तापमान लगातार बढ़ता जाता है। इस परत में गैसों का आयनीकरण हो जाता है। पृथ्वी से प्रेषित रेडियो तरंगों को इस परत में उपस्थित आयन परावर्तित करके बेतार के तार की संचार व्यवस्था को संभव बनाते हैं।
(2) आयतनमण्डल (exosphere): आयतनमण्डल वायुमण्डल के सबसे ऊपरी भाग को प्रदर्शित करता है। वास्तव में हमें 640 किमी० से ऊपर वाले वायुमण्डल के विषय में बहुत कम जानकारी उपलब्ध है। घनत्व अत्यन्त कम हो जाता है तथा वायुमण्डल अत्यन्त विरल होने के कारण नीहारिका (nebula) जैसा प्रतीत होता है। इसकी वाह्य सीमा पर तापमान 5568° सें० हो जाता है परन्तु यह तापमान धरातलीय वायु के तापमान से सर्वथा भिन्न होता है क्योंकि इसे महसूस नहीं किया जा सकता है।
आयन मण्डल के ऊपर वाले वायुमण्डल को वाह्य वायुमण्डल (outer atmosphere) कहा जाता है जिसके अन्तर्गत आयतनमण्डल एवं चुम्बकमण्डल (mag- netosphere) को सम्मिलित किया जाता है। इस मण्डल की महत्वपूर्ण विशेषता इसमें औरोरा आस्ट्रालिस एवं औरोरा बोरियालिस की होने वाली घटनायें हैं। अरोरा का शाब्दिक अर्थ होता है ‘प्रात:काल’ (dawn) जबकि बोरियालिस तथा आस्ट्रालिस का अर्थ क्रमशः ‘उत्तरी’ एवं ‘दक्षिणी’ होता है। इसी कारण उन्हें ‘उत्तरी ध्रुवीय प्रकाश’ (aurora borealis) एवं ‘दक्षिणी ध्रुवीय प्रकाश’ (aurora australis) कहा जाता है। वास्तव में औरोरा ब्रह्माण्डीय चमकते प्रकाश (cosmic glowing lights) होते हैं जिनका निर्माण चुम्बकीय तूफान के कारण सूर्य की सतह से विसर्जित इलेक्ट्रान तरंग औरोरा ध्रुवीय आकाश में लटके विचित्र बहुरंगी आतिशबाजी (multicoloured fireworks) की तरह दिखाई पड़ते हैं। ये प्रायः आधी रात के समय दृष्टिगत होते हैं।वायुमंडल की संरचना इस तरह है
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