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वेगनर का महाद्वीपीय प्रवाह सिद्धान्त

वेगनर का महाद्वीपीय प्रवाह सिद्धान्त (Continental Drift Theory of Wegener)- प्रो० अल्फ्रेड वेगनर जर्मनी के एक प्रसिद्ध जलवायुवेत्ता तथा भूशास्त्रवेत्ता थे। वेगनर ने अपने सिद्धान्त का प्रतिपादन 1912 में किया, परन्तु इसका विवेचन 1915 तथा 1920 में हुआ, क्योंकि प्रथम विश्वयुद्ध के कारण इस सिद्धान्त की ओर लोगों का ध्यान आकर्षित नहीं हो पाया। महासागरों की तली तथा महाद्वीपों की स्थिरता की संकल्पना को गलत प्रमाणित करने के लिए वेगनर ने अपनी प्रतिस्थापना परिकल्पना (displacement hypothesis) का प्रतिपादन किया। वेगनर के सामने मूलभूत समस्या थी जलवायु सम्बन्धी परिवर्तन । भूमण्डल पर अनेक क्षेत्रों में ऐसे प्रमाण मिले हैं, जिनके आधार पर यह ज्ञात होता है कि एक ही स्थान पर जलवायु में समय- समय पर अनेक परिवर्तन हुए हैं। इन परिवर्तनों को दो रूपों में स्पष्ट किया जा सकता है-

(1) यदि स्थल भाग एक जगह पर स्थिर रहे हों तो जलवायु कटिबन्धों का क्रमशः स्थानान्तरण हुआ होगा, जिस कारण कभी शीत, कभी उष्ण तथा शुष्क एवं कभी उष्णार्द्र जलवायु का आगमन हुआ होगा, परन्तु ऐसे स्थानान्तरण के प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं मिलते हैं।

(2) यदि जलवायु कटिबन्ध स्थिर रहे हों, तो स्थल भागों का स्थानान्तरण हुआ होगा। वेगनर ने स्थल के स्थायित्व को पूर्णतया अस्वीकार किया है तथा उनके स्थानान्तरण एवं प्रवाह में विश्वास किया है।

सिद्धान्त का प्रधान रूप वेगनर ने पूर्व जलवायु शास्त्र, पूर्व वनस्पति शास्त्र, भूशास्त्र तथा भूगर्भशास्त्र के प्रमाणों के आधार पर यह मान लिया कि कार्बानिफरस युग में समस्त स्थल भाग एक स्थल भाग के रूप में संलग्न थे।स्थलपिण्ड का नामकरण पैंजिया किया है। पैंजिया के चारों ओर एक विशाल जलभाग था, जिसका नामकरण वेगनर ने पैंथालासा किया है। पैंजिया का उत्तरी भाग लारेशिया (उ० अमेरिका, यूरोप तथा एशिया) तथा द० भाग गोण्डवानालैण्ड (द० अमेरिका, अफ्रीका, मैडागास्कर, प्रायद्वीपीय भारत, आस्ट्रेलिया तथा अण्टार्कटिका) को प्रदर्शित करता था। पृथ्वी सियाल , मध्यवर्ती भाग सीमा तथा केन्द्र भाग निफे का बना माना गया है। सियाल (महाद्वीपीय भाग) बिना किसी रुकावट के सीमा पर तैर रहा था। कार्बानिफरस युग में द. ध्रुव अफ्रीका में वर्तमान डर्बन (नेटाल) के पास (पैंजिया के मध्य में) था। वेगनर के सिद्धान्त का, इस प्रकार, कार्यान्वयन कार्बानिफरस युग से प्रारम्भ होता है। आगे चलकर पैंजिया का विभंजन हो गया तथा स्थल भाग एक दूसरे से अलग हो गये, परिणामस्वरूप महासागरों तथा महाद्वीपों का वर्तमान रूप प्राप्त हुआ।आज से 200 मिलियन वर्ष पूर्व तक पैंजिया था l

अपने महाद्वीपीय सिद्धान्त के पक्ष में वेगनर ने भू-आकृतिक प्रमाणों को एकत्रित किया इस सिद्धान्त के पक्ष में दिए गए कुछ महत्वपूर्ण प्रमाण निम्न है

1. वेगनर के अनुसार आन्ध्र महासागर के दोनों तटों पर भौगोलिक एकरूपता पायी जाती है। दोनों तट एक दूसरे से मिलाये जा सकते हैं। जिस तरह किसी वस्तु के दो टुकड़े करके पुनः मिलाया जा सकता है (jig-saw-fit), उसी प्रकार उत्तरी अमेरिका के पूर्वी तट को यूरोप के प. तट से तथा द. अमेरिका के पू. तट को अफ्रीका के प. तट से मिलाया जा सकता है।

2. भूगर्भिक प्रमाणों के आधार पर आन्ध्र महासागर के दोनों तटों के कैलिडोनियन तथा हर्मीनियन पर्वत क्रमों में समानता पायी जाती है।

3. यदि दोनों तटों की भूवैज्ञानिक संरचना का विचार किया जाय, तो पुनः साम्य दिखता है। डूट्वायट ने द.अमेरिका के पूर्वी तथा अफ्रीका के प. तटों का गहन अध्ययन करके बताया है कि दोनों तटों की संरचना में पर्याप्त साम्य है। इनके अनुसार दोनों तट पूर्ण रूप से नहीं मिलाये जा सकते, वरन् 400 से 800 किमी० का अन्तर रह जाता है।

4. आन्ध्रमहासागर के दोनों तटों पर चट्टानों में पाये जाने वाले जीवावशेषों तथा वनस्पतियों के अवशेषों में पर्याप्त समानता पायी जाती है।

5. भू गणितीय प्रमाणों के आधार पर यह बताया जाता है कि ग्रीनलैण्ड निरन्तर 20 मीटर प्रति वर्ष की गति से पश्चिम की ओर सरक रहा है। 1930 के बाद इसके पश्चिम की ओर खिसकने का कोई प्रमाण नहीं मिला है।’

6. स्कैण्डिनेविया के उत्तरी भाग में पाये जाने वाले लेमिंग नामक छोटे-छोटे जन्तु अधिक संख्या में हो जाने पर पश्चिम की ओर भागते हैं परन्तु आगे स्थल न मिलने के कारण सागर में जलमग्न हो जाते हैं। इससे यह प्रमाणित होता है कि अतीतकाल में जब स्थलभाग एक में मिले थे, तो ये जन्तु पश्चिम की ओर जाया करते थे।

7. ग्लोसोप्टरिस वनस्पति का भारत, द. अफ्रीका, फाकलैण्ड, आस्ट्रेलिया तथा अण्टार्कटिका में पाया जाना यह प्रमाणित करता है कि कभी ये स्थल भाग एक में मिले थे।

8. कार्बनिफरस युग के हिमानीकरण के प्रभाव का ब्राजील, फाकलैण्ड, द. अफ्रीका, प्रायद्वीपीय भारत तथा आस्ट्रेलिया में पाया जाना तभी संभव हो सकता है, जबकि सभी स्थल भाग कभी एक रहे हों तथा द. ध्रुव डर्बन के पास रहा हो।

प्रवाह सम्बन्धी बल

वेगनर के अनुसार जब पैंजिया में विभाजन हुआ तो उसमें – दो दिशा में प्रवाह हुए उत्तर की ओर या भूमध्य रेखा की ओर तथा पश्चिम की ओर। ये प्रवाह दो प्रकार के बलों द्वारा सम्भव हुए।

1. भूमध्य रेखा की ओर का प्रवाह गुरुत्व बल तथा प्लवनशीलता के बल (force of buoyancy) के कारण हुआ। महाद्वीप सियाल का बना है तथा सीमा से कम घनत्व वाला है, अतः सियाल सीमा पर बिना रुकावट के तैर रहा है।

2. महाद्वीपों का पश्चिम दिशा की ओर प्रवाह सूर्य तथा चन्द्रमा के ज्वारीय बल के कारण हुआ माना गया है। पृथ्वी प. से पू. दिशा की ओर घूमती है। ज्वारीय रगड़ पृथ्वी के भ्रमण पर रोक (ब्रेक) का काम करती है। इस कारण महाद्वीपीय भाग पीछे छूट जाते हैं तथा स्थलभाग पश्चिम की ओर प्रवाहित होने लगते हैं।

महाद्वीपों का वास्तविक प्रवाह

पेंजिया का विभंजन कार्बानिफरस युग से प्रारम्भ होता है। गुरुत्व तथा प्लवनशीलता के बल के कारण पैंजिया का दो भागों में विभंजन हो गया।त्तरी भाग लारेशिया तथा दक्षिणी भाग गोंडवानालैण्ड कहलाया। बीच का भाग टेथीज सागर के रूप में बदल गया। इसे टेथीज का खुलना (Opening of Tethys) कहा जाता है। जुरैसिक युग में गोंडवानालैण्ड का विभंजन हो गया तथा ज्वारीय बेल के कारण प्रायद्वीपीय भारत, मैडागास्कर, आस्ट्रेलिया तथा अण्टार्कटिका गोंडवानालैण्ड से अलग होकर प्रवाहित हो गये। इसी समय उ. तथा द. अमेरिका ज्वारीय बल के कारण पश्चिम की ओर प्रवाहित हो गये। प्रायद्वीपीय भारत के उत्तर की ओर प्रवाहित होने के कारण हिन्द महासागर का निर्माण हुआ। दोनों अमेरिका के पश्चिम की ओर प्रवाहित होने के कारण आन्ध्र महासागर का निर्माण हुआ। स्थलभाग समान गति से प्रवाहित नहीं हो रहे थे। आन्ध्र महासागर का ‘S’ अक्षर का रूप उ० तथा द० अमेरिका के पश्चिम दिशा में विभिन्न दर से प्रवाह के कारण सम्भव हुआ। दोनों अमेरिका के पश्चिम दिशा की ओर प्रवाह के कारण ही मध्य अटलांटिक कटक का निर्माण हुआ। आर्कटिक सागर तथा उत्तरी ध्रुव सागर का निर्माण महाद्वीपों के उत्तरी ध्रुव से हटने के कारण हुआ। पैन्थालासा पर कई दिशाओं से महाद्वीपों के अतिक्रमण के कारण उसका आकार संकुचित हो गया तथा उसका अवशिष्ट भाग प्रशान्त महासागर बना। इस तरह स्थल तथा जल का वर्तमान रूप प्लायोसीन युग तक पूर्ण हो गया था।

 

वायु द्वारा निर्मित स्थलाकृति

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